अप्रैल 11, 2011

है वसंत आत्मसंयम का...

इस साल भी तोक्यो में आ गया है हवा की नरमाहट में फूलों से भरपूर होने वाला बहार का मौसम. इन दिनों शहर के हर कोने में साकुरा यानी चेरी के पेड़ों पर घने से घने खिले पाए जाते हैं, फूल हलके से गुलाबी रंग के, जैसे सब मामूली सी, हमेशा की तरह ही.


मगर अब साकुरा के फूल दिखते कुछ अलग हैं. हाँ, फूल का रंगोरूप तो ज़रूर कुछ बदला ही नहीं है, बल्कि बदले शायद हम हैं फूल देखने वाले और हमारा समाज. बहुत कुछ बदले हैं कहीं न कहीं उसी दिन से, जब पिछले महीने भूकंप और त्सुनामी से तबाही घठी और इससे अकल्पनीय स्तर से भाड़ी नुकसान पड़ा.

आज उस क़यामत वाले दिन से पूरा एक महीना हुआ. दोपहर 2:46 बजे, जिस वक़्त पर ठीक एक महीने पहले 11 मार्च को वह भूकंप हो उठा, देश भर में कुछ पल का मौन रखकर श्रद्धांजलि अर्पित की गई. इस एक महीने का अरसा मुझे कुछ जल्दी से बीता लग रहा है, पर वास्तविक अवधि से कुछ लंबा सा भी लग रहा है. इस दौरान हालात ऐसा था कि लोग कुछ सदमे से निकल तो पाए फिर भी रोज़मर्रे ज़िंदगी में कहीं उथलपुथल तो होती रही. अब पहले की तरह साधारणता लोगों के जनजीवन में वापस आने लगी है, कम से कम तोक्यो में तो. यहाँ के निवासी लोग पीड़ित इलाकों से कहीं दूर है और ऐसे इलाकों की तुलना काफ़ी आरामदेह हालात में रह पा रहे हैं.

हालांकि इस आपदा के परिणामों के बारे में टीवी और इंटरनेट समाचार के ज़रिए लोग काफ़ी सूचित किए जाते रहे हैं. अगर आप यहाँ जापान में रहें और कुछ घंटों के लिए ही टीवी पर समाचार देखते रहें तो शायद ख्वामख्वाह समझ जाएँगे कि भूकंप, त्सुनामी या विकिरण, या फिर तीनों से पीड़ित इलाकों में हालत अभी भी कितनी गंभीर होती रही है और वहाँ लोग कैसी बड़ी मुसीबतों से जूझ रहे हैं. मुझे लगता है कि अब जनता के बीच बड़ी सहानुभूति जगी हुई है और बहुत से लोग पीड़ित लोगों की मदद या हौसला अफ़जाई के लिए जो भी कार्य अपनी क्षमता से हो सकें करने लगे हैं.

इस सिलसिले में एक रुझान अब समाज में उभर कर सामने आया है. कुछ ऐसे कार्य (कम से कम सार्वजनिक में) बिल्कुल बंद करने या कुछ सामान्य से अत्यंत नम्रता से किए जाने लेगे हैं, जैसाकि कोई पार्टी या त्यौहार आदि अवसरों पर शोर मचाना, मस्ती करना और फिर मज़ा लेना, आदि. ख़बरों में बताया जा रहा है कि होटलों और शौपिंग मॉलों में कुछ कम लोग आते हैं और शादी की रस्मों और पर्यटक यात्राओं की बुकिंग भी बड़े पैमाने पर ग्राहोकों की तरफ़ से रद्द की जा रही हैं. देश के अलग-अलग हिस्सों में कई बड़े-बड़े उत्सव भी कैंसल हो जाते हैं और कई उत्सव सामान्य से अधिक शांतिपूर्वक शैली में या पूरी तरह से असार्वजानिक रूप में मनाए जाते हैं.

माना जा रहा है कि इस बदलाव की पृष्ठिभूमि में लोगों की ऐसी मानसिकता है कि पीड़ित लोगों की भावनाओं पर ध्यान देते हुए हम आम नागरिकों को अपनी जनजीवन में संयम बरतनी चाहिए क्योंकि पीड़ित इलाकों में लोग बहुत गंभीर परिस्तिथियाँ सह रहे हैं और संघर्षों के पीछे कहीं न कहीं चिंता और उदासी में डूबे हैं. इसके अलावा कुछ अमली वजहात भी रही हैं, जैसे पिछले हफ़्ते तक तोक्यो समेत कई पड़ोस क्षेत्रों में रोलिंग अंधकार की आशंका होती रही थी जिसके कारण यातायात और कुछ सामाजिक कार्य में बड़ी दिक्क़तें पेश आई थीं. यही प्रवृति बस एक शब्द "जिशूकू (自粛)" यानी "आत्मासंयम" से संक्षेप में वर्णन की जाती है (और वैसे, न्यूयॉर्क टाइम्स और बीबीसी समेत कई अंग्रेज़ी मीडिया में भी इस जापानी शब्द के अंग्रेज़ीकृत "jishuku" का परिचय हो रहा है).

हो सकता है कि कहीं लोग सक्रिय रूप में बर्दाश्त करते हों, या कहीं आलोचना की झंझट से बचने के लिए ही ऐसा करते हों. पर मुख्य कारण जो भी हो, अब इस जिशूकू वाली प्रवृति और इसका प्रभाव देश भर में समा रहे हैं, किसी तरह की व्यक्तिगत गतिविधियों से लेकर निजी कंपनियों के व्यापारों तथा पब्लिक पॉलिसी तक.

वैसे, इस साकुरा के मौसम में अकसर लोग फूल देखने को पेड़ के नीचे चले आते हैं और कभी छुट्टी में अपने सहकर्मियों या दोस्तों-परिवारों के साथ खली हवा में खानपान भी किया जाता है. लेकिन इस साल तो कुछ थोड़े ही लोग समूह बनाके बैठे पाए जाते हैं. और यहाँ तक कि पिछले महीने तोक्यो के राज्यपाल ने एक पत्रकार सम्मेलन में मीडिया से कहा कि "साकूरा के फूल खिल गए तो क्या, आओ ज़रा एक गिलास शराब पीके ख़ूब गपशप करें, अभी ऐसी स्थिति में नहीं हैं हम", और इस टिप्पणी के बाद तोक्यो स्थानीय सरकार द्वारा प्रबंधित कई पार्कों में ऐसा आधिकारिक निर्देश भी जारी किया गया है कि वहाँ कुछ पार्टी की तरह ख़ूब मस्ती न करें. और उन पार्कों में हर शाम को साकुरा के पेड़ों पर लाइट अप होता था, जिस सेवा को भी बिजली बचत उपाय के तौर पर बंद किया गया है.

ऐसी जिशूकू वाली प्रतिक्रिया को लेकर काफ़ी तर्क-वितर्क भी हो रहे हैं. विरोधियों का कहना है कि देश भर में लोग कुछ ज़्यादा से मनोरंजन और खरीदारी जैसे उपभोग कार्यों से आत्मसंयम रख रहे हैं. ऐसी प्रतिक्रिया पूरे देश की अर्थव्यवस्था से लेकर पीड़ित इलाकों के पुनर्निर्माण और अनेक पीड़ित लोगों की पुनरुत्थान प्रक्रियाओं तक पर दुष्प्रभाव ही डालेगी और इस लिए ऐसे अनहोनी दुष्चक्र में फँसने से बचना चाहिए. अब ऐसी आवाजें पीड़ित इलाकों से भी बहुत आ रही हैं (जैसे यहाँ), और मदद के लिए कुछ स्वेच्छा से वहाँ के उत्पाद खरीदने को प्रचार भी किया जा रहा है. जापानी सरकार ने भी "अति-आत्मसंयमित" लोगों के झुकाव को लेकर काफ़ी चिंता जताई है, जैसे एक सरकारी एजेंसी ने आयुक्त के नाम पर लोगों को प्रार्थना दी है कि "पूरे देश में शक्त बहाल करने के लिए" सांस्कृतिक और कलात्मक गतिविधियों से संयम न करें.

ऐसे बहस में मैं कहीं जिशूकू विरोधियों से सहमति रखता हूँ, पर कहीं उन विचारों से असहमत भी हूँ. तोक्यो राज्यपाल की तरह शासन की तरफ़ से संयम करवाना (वह भी कुछ कठोरता से व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर दबाव डालते हुए) तो बिल्कुल ग़लत और बेहूदा कोशिश है. ऐसे कहीं अर्ध अनिवार्य "आत्म"संयम में पीड़ित लोगों के लिए कोई फ़ायदा होगा भी नहीं. अगर होगा तो बस संयम करवाने वालों की आत्मसंतुष्टि का ही. मगर "ज़्यादा खर्च करो, देश बचाओ" वाले तर्क पर भी कुछ शक रहता है. अगरचे लोग और ज़्यादा पैसे निजी खरीदारी में खर्च कर डालेंगे इससे देश के अर्थव्यवस्था के लिए तो लाभ पैदा होगा ही, ऐसा लाभ तो न सीधा न पूरा पहुँचेगा पीड़ित इलाकों के क्षेत्रीय अर्थव्यवस्था तक और हर एक पीड़ित तक. कुछ ऐसा भी दिख जाता है, मानो "पीड़ितों के हित" को कहीं बहाना बनाया जा रहा हो. मेरा कहेने का मतलब है कि पीड़ित इलाकों की चीज़ें खरीदकर वहाँ के उत्पादकों का सहारा देना तो बिल्कुल ठीक है मगर इस लाभ की पहुँच कुछ आंशिक रूप से बड़ी कंपनियों और अमीर तबकों तक ही सीमित न रहे. आखिर, निजी उपभोग को ज़्यादा से ज़्यादा बढ़ावा दिया जाता रहे भी हद तो होगी और उसपर ज़्यादा निर्भर भी नहीं कर सकेंगे, और सरकार के अपनी ख़ासा भूमिका निभाए बिना पूरे से पूरे पीड़ित इलाकों को, और सारे के सारे पीड़ित लोगों को सहारा देते रहना बेहद मुशकिल होगा.

और, जिशूकू वाली व्यक्तिगत तथा सामाजिक मनोदशा को पूरी तरह नकार न दे पाने का (और ऐसा करना भी न चाहने का) एक और कारण भी है. मेरा मानना है कि इतनी शोकपूर्ण घटनाओं के बाद कुछ थोड़ा-बहुत भावुक होना, दूसरों के दर्द को समझना, उनका साथ देते हुए कहीं शोक में डूब जाना, और शोक मनाने की तरह कुछ कार्यों का आत्मसंयम भी रखना. यही तो गैर-पीड़ित लोगों की भी बहुत स्वाभाविक प्रतिक्रिया और मनोवृत्ति होगी.

अब पुनर्निर्माण की गति को लेकर यह नहीं भूलना चाहिए कि लोगों को अपने-अपने ग़मों से बमुश्किल समझौता कर पाने में काफ़ी देर तो लगेगी और अपनी-अपनी मुसीबतों से कोई जल्दी से निपट पाएगा तो कोई आहिस्ते से. क्योंकि इस बार की आपदा में ऐसे लोग भी कम नहीं हैं जिनके अपने अज़ीज़ त्सुनामी आने के बाद लापता हो गए हैं और शायद त्सुनामी में दूर बह जाने की वजह अब तक उनकी लाशें तक नहीं मिल रही हैं. ऐसे लोग चाहे कितनी बार भी अनजाने मृतकों को तो श्रद्धांजलि देते रहें, पर अपने प्रियों के लिए ही न अंतिम संस्कार कर सके हैं, नकि ऐसे अवसर पर ठीक से उनकी मृत्यु का शोक भी मना सके हैं.

बहुत लोग अब भी सुबह से शरणस्थल निकलकर तत्कालीन शावागारों में, मलबे बने घर या कर्मस्थल के आसपास या समुद्रतटों पर चले आते हैं और दिन ढलने तक ऐसा चक्कर लगाकर घूमते है. पीड़ित इलाकों में बहुत से लोग ऐसी ही बड़ी आस में शव की तलाश कर रहे हैं कि कहीं मर चुके तो भी कम से कम शव तो परिवार के पास लौटके आ जाए और पूर्वजों के साथ ख़ानदानी कब्र में ठीक से दफ़न कर लिया जाए.

शायद ऐसे लोगों के जीवन की घड़ी कहीं तो उस दिन से रुकी हुई होगी, जबकि समाज में बाकी लोगों को तो शोक से बाहर आने की अपनी-अपनी समयसीमा तय करके आगे चलना ही होगा. फिर भी, मेरा और दूसरों का यह अरमान रहेगा कि चाहे कितनी देर तक उनके क़दम वहीं ठहरते जाएँगे भी, कभी न उन्हें आगे बढ़ाने को कोई जल्दबाज़ी हो न कि उन्हें खींच-खींच के मज़बूरी में बढ़ाया जाए, और बस समाज की तरफ़ से इंतज़ार किया जाता रहे. आज और भविषय में शहर के पुनर्निर्माण के चलते हुए , ऐसा नहीं होने दिया जाना चाहिए, जैसाकि तब भी शोक में डूबे लोगों को समाज के किनारों पर धकेल दिया जाता हो और ऐसे लोगों को कहीं पिछड़ता हुआ महसूस कराया जाता हो.




चलो, अब बात कुछ ज़्यादा लंबी हो गई....



तो, फिर से ज़रा देखें, मज़ा भी लें, बहार के चंद नज़ारे हैं साकुरा और अन्य फूलों के.

















भूकंप और त्सुनामी से ग्रस्त उत्तर-पूर्वी इलाकों से भी अब साकुरा के खिलने की ख़बरें आने लगी हैं. ए फूलो, वहाँ किसी के दुःख दर्द को कुछ हल्का तो कर दें, अगर भुला ही न सकें भी.

मगर बिल्कुल अच्छा हुआ, कम से कम फूल तो अपने ख़ूब रंग दिखाने से जिशूकू कभी नहीं करते...

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